महँगाई
महँगाई


दादी जी की याद जो आई
वो चमकदार आँखें लहराई
बोल जुबां पर फिरते थे पर
सपने आँखों में तिरते थे
भविष्य नहीं, वे यादें थीं,
जो बात बात पर निकलती थी।
कभी जलेबी एक पैसे की
दोना भर आ जाती थी।
कभी सोलह आने में सोलह सेर
देशी घी की खुशबू घर गमकाती थी।
सोना चाँदी का एक तोला
बस दस रुपए तुल जाता था।
शानदार हवेली तीन मंज़िली
बस तीस हजार में मिलती थी।
एक पैसे का जीभ जरऊँआ
पाचक खाते सब सुनती थी।
अपनी भी कुछ बुरी नहीं थी
टॉफी पैसे में एक मिलती थी।
एक रूपये का रिक्शा तीन
चौराहे पार कराता था।
ग्यारह नंबर की बस पर जाओ
वह भी गुल्लक में जाता था।
सरकारी स्कूल में जाकर
फ़ीस माफ़ सी हो जाती थी।
ग्यारह चवन्नियों के बदले
टीचर पूरे माह पढ़ाती थी।
रैपिडेक्स को पढ़- पढ़ कर
अंग्रेजी वॉकिंग टॉकिंग होती थी।
इंग्लिश मीडियम स्कूलों में बस
पुस्तक इंग्लिश की होती थी।
बेटी जब पढ़ने को आई
इंग्लिश विद्या ही रास आई।
कुछ रुपयों से ज्यादा रुपए
खर्च कर एडमिशन करा दिया।
भांति-भांति पुस्तकों के संग
कलर, फेवीकोल भी आ गया।
बस्ता ब्रांड का चाहिए था
बोतल, टिफिन और बॉक्स भी।
रिक्शे का अब समय नहीं था
बस का हॉर्न बजता था।
नये पुराने जमाने के बीच में
स्ट्रेंजर्स का ख़तरा बढ़ता था।
कभी देखती फ़ीस की पर्ची
कभी विद्यालय की इमारत नयी।
जो बतलाते थे आज की
महँगाई का ग्राफ सही।
लक्ष्मी सरस्वती ने की थी
अब एक साठ-गांठ नई
एक बिना दूजी को पाना
थी बीते काल की बात हुई।