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राजेश "बनारसी बाबू"

Others

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राजेश "बनारसी बाबू"

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मैं कौन हूंँ मैं क्या हूं

मैं कौन हूंँ मैं क्या हूं

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हर घड़ी हर पहर खुद को ढूंढता हूंँ मैं

हर अक्श में हर पहर में खुद से पूछता हूंँ मैं

क्या मैं कौन हूंँ मैं क्या चाहता हूंँ मैं

कश्मकश इस बेरंग दुनिया से पूछता हूंँ मैं

एक खलिस सा मुझको लगता है

अब तो चांँद में भी दाग सा दिखता सा है

कल तक जो शख्स अपना बना फिरता था

हर राह हर मोड़ पे हाथ थामे खड़ा रहता था

अब वह भी गैर सा लगता है

अब तो परछाई भी हाथ छुड़ाती है।

अब गैरो की भी क्या बात करू

महफिल में भी तन्हाई महसूस हो जाती है

अब तो आंँख से यूं ही अश्क निकल जाती है

अब यह आंखे खुद भी रोती खुद ही चुप हो जाती है

बनारस की मदमस्त गली में भी अब 

बेरंग नीरस फीकी नज़र आ जाती है।

जब कोई अपना कहता है

बस आंँखे भरी नजर आ जाती है।

अब चांँद भी अधूरा लगता है।

अब रंग भी बेरंग सा लगता है

सूरज की तपिश की क्या बात करू

हर सुनहरी शाम बेजान सी नजर आ जाती है

अब खुद को भूल रहा हूंँ

अब खुद से ना पूछ रहा हूंँ मैं

मैं कौन हूंँ क्या हूंँ अब ना कोई ख्वाहिश है

जीने का ना अब ना कोई वजूद रहा 

अब जिंदगी भी रास ना आती है

मौत भी दूर से मुंह चिढ़ाती है

अब एक बात खुद से फिर पूछ रहा हूंँ

मैं कौन हूंँ क्या हूंँ शायद एक माटी का 

पुतला हूंँ

अब ख्यालों के शहर में एक बात समझ 

में आया है

मैं कौन हूंँ मैं क्या हूँ मै एक शून्य हूंँ।



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