मायके का वो कोना
मायके का वो कोना
क्या कभी मुमकिन है कि ऐसा हो जाए
काश समय का पहिया बस उलटा घूम जाये,
मुझे मायके का वह कोना दोबारा मिल जाये
जिस कोने में रखी है मेरी बीती यादों की पिटारी
और बस पिटारी में क़ैद यादों की ख़ुशबू बिखर जाए !
जहाँ प्यार के रिश्तों में गुँथी थीं हमारी ज़िन्दगियाँ,
जहाँ होतीं थीं माँ के संग हँसी ठिठोलियाँ,
और पापा के असीम लाड़ में सराबोर हम बेटियाँ !
जहाँ बहन के साथ होती थीं अनगिनत लड़ाइयाँ
पर सब भूल रोज़ होतीं थी प्यार की गलबहियां !
छोटे भाई की राखी पर भर जाती थीं कलाइयाँ
नन्हें हाथों से हमें रुपये पकड़ाती वो हथेलियाँ !
गर्मी की लम्बी शामों में कैरम और ताश का दौर
सर्द रातों में गर्म रज़ाइयों में, बातों का कहाँ था ठौर !
तब सहेजती थी मैं, ख़्वाहिशें करके तह किताबों में,
जैसे कोई सहेजता है सुर्ख़ सूखे गुलाब किताबों में !
तब रंगीन सपने हौसला बन दौड़ते थे मेरी रगों में,
अपना भी सपना ढूँढते थे माँ पापा, मेरे उन्हीं सपनों में !
कितनी दूर निकल आयी हूँ वक़्त के दरिया में बहते बहते
मुड़ कर देखूँ तो बस यादों का समंदर नज़र आता है
माँ, पापा और वो मायके का आँगन नज़र आता है !
आँगन की कुर्सियों पर माँ पापा अदृश्य से नज़र आते हैं
जैसे किसी झरोखे पर पड़े झीने पर्दे से धुँधले अक्स नज़र आते हैं
काश जी लूँ मैं दोबारा उन बीते अनमोल पलों को !
ढेर सारी बातें कर लूँ अपने बिछड़े माँ पापा से,
जो उस वक़्त न कह पाई काश अब कह लूँ,
उनसे लिपट कर, रो कर, अपना जी हल्का कर लूँ !
पर यह निर्मम वक़्त कहाँ दोबारा मौक़ा देता है
एक बार जो गुज़र गया फिर लौट कर कहाँ आता है !
इसलिये ख़्वाहिशों की जगह अब यादों की तह लगा रही हूँ
ताकि सहेज सकूँ उन्हें अपने मन की ऐसी किताब में,
जिसमें पन्ने हों असीमित और यादें रहें सदा जीवित !
इस सूनेपन के साथ ही जुड़ी हैं ख़ुशी की कुछ लड़ियाँ,
मायका वही है...वही खुले दरवाज़े वही खुली खिड़कियाँ
अब वही छोटा भाई, बड़ा बन सदा प्यार से बुलाता है
ज़िन्दा है मायके का वो कोना, यही एहसास दिलाता है !