"मानवता ही श्रेष्ठ क़िताब"
"मानवता ही श्रेष्ठ क़िताब"
मानवता का पाठ पढ़ लिया,
इस जीवन रूपी क़िताब में!
अपनों से प्यार करूं मैं ख़ूब,
न रखूं उसे किसी हिसाब में!!
मानवता व प्रेम से बढ़ करके,
किसी क़िताब में मिले न ज्ञान!
मन से यदि पढ़ डालूं इसको,
मैं बनूं एक मुकम्मल इंसान!!
मात पिता की सेवा कर लूं,
अनुज स्नेह, अग्रज सम्मान!
हीरा मोती भी यदि मिल जाए,
तब भी न हो मुझे अभिमान!!
किसी को जब देखूं मैं व्यथित,
उसकी कुछ पीड़ा हर पाऊं!
इंसानियत के पथ पर चलकर,
किसी को कुछ मदद पहुचाऊं!!
भेद भाव व द्वैष कपट उर से,
मिटा कर एक बनूं नेक इंसान!
जाति पाति धर्म मज़हब का,
विषता का न हो कहीं निशान!!
जहाँ कहीं दिख जाए अँधेरा,
मैं बनूं उजाले की पहचान!
मनुजता का पाठ सिखाकर,
ले आऊं मैं होठों पर मुस्कान!!
बहुत किताबें पढ़ डाली मैंने,
मानवता ही सबसे श्रेष्ठ क़िताब!
अपनों पर ख़ूब प्यार लुटा डालूं
जिसका न रखूं कोई हिसाब!!
कितने भी बड़े ज्ञानी हो जाएं,
मानवता को हम पढ़ न पाएं!
उच्च पदस्थ रह कर भी हम,
असल में न मनुज कहलाएं!!
