लिखने का डर
लिखने का डर
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अक्सर मेरी कलम यही सवाल करती है,
लिखते-लिखते डर सा क्यों लगता हो.
यूँ तो लिखती हूँ मैं हर पल दिल की भावना,
क्या कोई मेरी लिखी बातों को समझेंगे.?
मैं रो पड़ती हूँ, काग़ज़ भी भीग जाता है ,
यूँ डर से मेरे होंठों पे चुप्पी छा जाती है.
जाने दिल की सुनूं या दिमाग की मान लूँ
नन्ही कली सी डर के सहम सी जाती हूं.
एै कलम,न हो परेशान,मै भी तुझ जैसी हूँ
तुझ जैसे ही डरकर मै हर रंग में रंग जाती हूँ।