क्या खोया, क्या पाया?
क्या खोया, क्या पाया?
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दामिनी की चमक,
काले मेघों के मध्य ही उचित है...
मर्यादा छोड़...
धरा पे आ जाती है जब वह,
तो विनाश ही करती है...
इसीलिये ...
तुम्हारे सानिध्य की लालसा का,
दमन करती रही हूँ मैं सदैव...
कि, तुम्हारा आगमन...
क्षण भर में, नष्ट कर देगा वह सब कुछ...
जो संजोया है मैंने...
अब तक...
एक प्रश्न चिन्ह-सा जीवन,
पूछता है...
क्या खोया, क्या पाया...?
उम्र के इस पड़ाव पर,
सोचती हूँ...
अक्सर ये मैं...