कविता
कविता
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किसी ने मुझ में
महबूब को चाँद सा देखा,
तो किसी ने मुझे ही
अपना महबूब समझा।
बुद्धिजीवियों ने मेरे यौवन से
खुद को तृप्त किया।
मैं गरीब तक को रिझाने में सफ़ल हुई।
द्रौपदी के चीर हरण के बाद ही
मैं इस्तेमाल में लाई गई,
सीता के रावण हरण के बाद ही
मैं सवाल में उगाई गई,
किसी वीर के मरण के बाद ही
मैं परतों पर जमाई गई।
बाकी दिन मैं रद्दी हूँ।
दबी-खुची सी, सहमी सी रहती हूँ।
मैं प्रेम में लिखी जाती हूँ,
तो कभी प्रेम पर लिखी जाती हूँ।
हाँ मैं 'कविता' हूँ !