कविता
कविता
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बचपन से मेरी आकांक्षा थी
कि काश
मुझे पर लग जाए
और मै आकाश को छू लूं
में दिन रात
सपने देखा करता था
कि ईश्वर मेरी यह मनोकामना
जरूर पूरी करेगें
मुझे कोई न कोई रास्ता
अवश्य मिलेगा
अपने मन के उद्गार व्यक्त कर
अभी में मंदिर के बाहर
आया ही था कि एक पतंग
मेरे कदमो में आकर गिर गई
अब मुझे मेरी मंजिल
मिल चुकी थी
मेने उस पतंग में
अपनी तमाम आकांक्षाओं को
बाँध कर उड़ा दिया
अब वे मेरी इच्छा के मुताबिक
अपना गगन छू रही थी ।
