कविता का शीर्षक - मर्यादा
कविता का शीर्षक - मर्यादा
मर्यादा में कैसे लाँघूँ, मात-पिता के पैरो की।
अब दीवारें गंदी हो गई, ऊंचे ऊंचे शहरों की।
ना इज्जत कि रक्षा होती,
ना संस्कार का बाजार यह।
मन्दिर, मस्जिद, गिरजा घर में,
बिकते हैं भगवान यह।
गंदी सोच है, गंदे विचार
दिमागों में भरे हुए।
हमारे बीच में घूमते है,
ऐसे कितने लोग मरे हुए।
अब देश को कौन जरूरत,
ऐसे नेता बहरों की।
मर्यादा में कैसे लाँघूँ , मात-पिता के पैरो की।
अब दीवारें गंदी हो गई, ऊंचे ऊंचे शहरों की।
नन्ही-नन्ही मासूमों को,
यह तड़पाये जाता है।
समझ नहीं आता हैवानों को,
क्या सिखलाया जाता हैं।
अर्ध नग्न चित्रों को,
सरे राह दिखाया जाता है।
ऐसा इनके कारण हो रहा,
कहाँ बतलाया जाता है।
अब इस देशों को पड़ी जरूरत,
बदलावों वाली लहरों की।
मर्यादा में कैसे लाँघूँ मात-पिता के पैरो की।
अब दीवारें गंदी हो गई, ऊंचे ऊंचे शहरों की।
बच्चा मां-बाप की 20 रुपये कि,
दवाई तक ना लाता है।
और गर्लफ्रेंड के फोन में,
सौ-सौ का रिचार्ज कराता है।
गर्लफ्रेंड को बोलता है,
वो जान और जानू।
तेरी खातिर मां-बाप की,
कतई बात ना मानूँ।
अब कौन करेगा देखभाल इन,
बड़े बुजुर्ग महलों की।
मर्यादा में कैसे लाँघूँ ,मात- पिता के पैरो की।
अब दीवारें गंदी हो गई, ऊंचे ऊंचे शहरों की।
आज कि पीढ़ी मगन हो गई,
शीला मुन्नी रानी में।
मन कहता है आग लगे,
ऐसी नई जवानी में।
भगवानों के गीत भूल गए,
यू-यू कि रैप याद है।
नशे के चक्कर में बचपन,
हो रहा बर्बाद है।
भूल गये ये शहादत देखो,
फांसी पर झूलने वाले शेरों की।
मर्यादा में कैसे लाँघूँ, मात-पिता के पैरो की।
अब दीवारें गंदी हो गई, ऊंचे ऊंचे शहरों की।
