कोरोना की विभीषिका
कोरोना की विभीषिका
कोरोना शिव का रौद्र तांड़व नृत्य
कालि का रक्तपिपासु खाली खप्पर
सारी सृष्टी कांप रही है यूं ही थरथर
मानव इक अदना सा खिलौना भर।
विराट प्रकृतिकी विराटता से अनजान
सुक्ष्मातीत के सुक्ष्म खेल से अनजान
प्रकृति के विनाशी स्वरुप से अनजान
है कितना बौना,मानव कितना नादान।
एक विषाणु जो पूर्ण जीव भी नहीं
तुम पर निर्भर हैं जिसका अस्तित्व
आज तुममें समाकर तुम्हारी सारी
उर्जा चूसकर, कर रहा है नरसंहार।
तुम हो हतबल,भयभीत, आतंकित
हुआ एहसास मानवीय अपूर्णताका
इन्सान के अस्तित्व की ये लड़ाई
जीजान से एक होकर लड़नी होगी।
एक आवज में हो दृढ़ एकता का राग
छोड़, सारे गोलाबारूद औ' हथियार
मिलकर लडना है कोरोना के खिलाफ
नहीं तो मानव जाति का होगा बंटाधार ।
