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कम्बख्त वक्त

कम्बख्त वक्त

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कम्बख्त ये वक्त, बड़ा बे रहम है

खुद ही दवा है अपनी, खुद में ये ज़ख्म है


हाथ होता है मगर ये, साथ होता है नहीं

हक़ में लगता है मगर ये, हक़ में होता है नहीं

क्या बला की शै है ये, खुद को ही दोहराता है

बन कभी तस्वीर खुद की, गुमशुदा हो जाता है


शख्स है आवारा जाने, क्यूँ कहीं रुकता नहीं

कोई भी हो सामने पर, ये कभी झुकता नहीं

साथ जिसके ये हुआ, अर्श पर छा जाएगा

सर पे जिसके आ गिरा, वो ख़ाक में मिल जाएगा


कोई कितना भी बड़ा हो, इससे ना लड़ पाएगा

साथ इसके ना चला जो, इसमें ही खो जाएगा

चाहे कोई बादशाह हो, या कोई चट्टान हो

कोई छोटा सा परिंदा, या बुद्ध सा महान हो


तख़्त हो या ताज हो, किसकी क्या बिसात है

कौन कहलाएगा क्या, ये सब इसी के हाथ है

दो घड़ी के बीच खुद, ये कभी जुड़ता नहीं

राह मुड़ती है सभी की, ये कहीं मुड़ता नहीं


है सभी को देखता ये, खुद कभी दीखता नहीं

बात सुनता है सभी की, खुद कभी कहता नहीं

अपनी मर्ज़ी से चला है, ये बड़ा बदनाम है

खुद में है ये बादशाह, के ना कोई ग़ुलाम है


आना जाना खोना पाना, सब इसी की चाह है

आदि है ना अंत इसका, ये अनंत राह है



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