क़िल्लत
क़िल्लत
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चिलचिलाती धूप का गर्म पहरा
तपती जेठ का सूखा सन्नाटा
क्षितिज की तेज़ झनझनाहट
मस्तिष्क भ्रम की सारी उलझने
पानी की असंख्य क़िल्लते
गली शहरों में रोज़ झगड़े
पशु पक्षि सारे त्रस्त पुकारें
वन्य सृष्टि मुर्छित बन बैठी
नदी पोखर दूर दूर तक बंजर पड़े
भूमि व्यथित होकर रोती रही
बादल कब मेघ मल्हार बन के आए!