*खुशियों के ख़जाने *
*खुशियों के ख़जाने *
खुशियों की तलाश में
निकला घर से दूर,
इस आस में विश्वास में
दुनिया की चकाचौंध मुझे लुभा रही थी,
जीवन की सारी खुशियां उसी ओर नजर आ रही थी,
सुकून की तलाश में
बहुत भटका इस विश्वास में,
दुनिया की रंगीनियां से मैं आकर्षित,
दीप जलाए खुशियों का दुनिया में।
भटकता रहा अपनों से दूर
आखिर मिट ही गया मेरा गरूर,
जब सिर से उतरा फितूर
दूर के ढोल सुहाने लगे,
स्वार्थ की दुनियां के अफसाने लगे
स्वदेश के किस्से याद आने लगे,
अपनों के मरहम सताने लगे
मैं तड़फा लौटा चला घर की ओर,
मुझे मेरे अपनों के निस्वार्थ प्रेम के दर्द सताने लगे,
मुझे मेरे अपने और अपनों के साथ बिताए पल,
खुशियों के खजाने लगे।
