खुद का वजूद
खुद का वजूद
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ज्यों ज्यों उम्र ढलती जा रही है
जीने की चाहत मिटती जा रही है
नजर नहीं आता अब खुद का वजूद
परछाईं भी साथ छोड़ती जा रही है
न तन देता साथ ,न जीवन में उमंग
न दिल को भाता संगीत ,न कोई तरंग
न जाने मेरी जिंदगी ,क्या चाह रही है
जान अकेली और उलझनें बेशुमार
सुलझते नहीं अब मुझसे उलझनों के तार
ये उलझनें मुझे और उलझा रही है
किसे सुनाएं अपनी दास्ताँ और दिल का हाल
ये दिल अब रहने लगा है बहुत बीमार
अब तो कोई दवा या दुआ भी काम नहीं आ रही है.