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ख़त

ख़त

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कभी मैने लिखा था तुम्हें ख़त

तब फ़िज़ाओं में एक रंगत सी आ गई थी

चेहरे पर उड़ने लगे थे हया के गुलाब

और एक अंजानी सी खुशबू

घुल गई थी सांसों में

ख्बाब पहले से भी ज़्यादा हसीन हो गए थे


सच कितने अच्छे थे वो दिन

जब मैं आत्मा की स्याही से

दिल के काग़ज़ पर लिखती थी-

"हाँ तुम मेरी ज़िंदगी हो"

तब यही स्याही हमारे

ख्यालातों, जज़्बातों और एहसासातों की

जान हुआ करती थी

जो एक पल में सारा राज़

खोल भी सकती थी,

छुपा भी सकती थी।


बरसों हो गये पर आज भी

मैं जब खोलती हूँ तुम्हारे वो ख़त

तो अंदर तक प्यार से भीग जाती हूँ

हालांकि अब पीला पड़ गया हैं

ख़त का काग़ज़

पर उसके एक एक लफ्ज़ से

भीनी भीनी सी महक आती हैं


सोचती हूँ कितने अच्छे थे वो प्यार,

मनुहार, इज़हार के दिन

जब दिल की गहराइयों से

लिखे जाते थे ख़त।


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