ज्योत्सना...
ज्योत्सना...
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पूर्णिमा की शरद रात्रि,
चंद्र आभा से नहाई,
'ज्योत्सना' का प्रकट होना।
महका धरा का हर कोना।
हवा वश पत्ते टकराकर,
बजा रहे थे तालियाँ।
उल्लू भी उसके स्वागत में,
मार रहे थे किलकारियाँ।
झींगुरों ने मिलकर,
घुँघरू का जो काम किया,
चमगादड़ों ने भी अपने स्वर में,
संगीत को अंजाम दिया।
चंद्र की चंद्रिका सिकुड़ रही थी,
न चाहते हुए भी,
सुबह हो रही थी।
