जूता
जूता


भाई के पास कितने भी जूते हो
बचपन से उसे पापा के जूते को
कभी घूरते तो कभी प्यार से
निहारते देखा है
पंद्रह की उम्र में
जब पापा के जूते
भाई के पैरों में
एकदम फ़िट हो आया
उसे इतरा कर चलते देखा है
आज सोचती हूँ
क्या देखता था भाई?
क्या सोचता था?
पापा का जो रुतबा था
घर और बाहर
उसे वो
उन जूतों की चमक, दमक में
देखता था?
आज जब
अपने बेटों को देखती हूँ
अपने जूतों को छोड़कर
अपने पापा के जूतों की ओर लपकते
तो सोचती हूँ
क्या महसूस करते है वे
कहते है कि
आज के इस ड्रेस के लिए
परफ़ेक्ट है पापा के ये जूते
तब भी वही सवाल उमड़ता है
ज़ेहन में बार-बार
क्या जूतों संग पापा की ज़िम्मेदारी
पापा का रुतबा
परिवार में उनकी जगह
मेहनत और समाज
इन सबकी तरफ
बढ़ते क़दम से क़दम
पापा के जूते पहनकर यह सब
ये निभा पायेंगे?
उन क़दमो में नहीं होता मचमच
नहीं होती है ऐंठ उन जूतों में
पापा के जूते आहत नहीं करते
यह जूते ही नहीं
अपने परिवार के प्रति
एक जवाबदेह क़दम हैं
क्या हर बढ़ता बेटा
पापा के इन जूतों संग
जिम्मेदारियों के बोझ का भी
आदी बन चुका है?
या इस बढ़ते पाँव को
अभी भी
पापा के इन जूतों से ही
सहारे की उम्मीद है?
पापा के जूते बहुत भारी होते हैं
सरलता से यदि उठ रहे हो क़दम
बिना थके
तो पापा के जूते
हर बढ़ते बच्चे के लिये पर्फेक्ट है।