जुगाड़ के नक़ाब
जुगाड़ के नक़ाब


क्यों पहनूँ मैं भला ये झूठी
जुगाड़ के नक़ाब
बड़ी घुटन होती है खुद से ही
जिसे मंज़िल समझ चल रहा था
वो खुद मंज़िल की तलाश में था
दुनिया को भला और कितने
नक़ाब में देखूँ
इतने नक़ाब में कितने
पहचान देखूँ
सोचता हूँ खुद भी एक
नक़ाब पहनूँ
पर फिर वहीं बात ,
चेहरे नायाब मिलेंगे
नक़ाब लगाए चेहरे में
कोई पहचान भी तो नहीं
पर नक़ाब उतारने के बाद
क्या होगा ?
वहीं शायद जो पहले था
तो हजार उलझनो को छोड़
किसी छोर को थाम लेते हैं
दिल के घोंसले को उजाड़ कर
मोम में बत्ती सुलगाते हैं
किसी और रौशनी के लिए
खुद को पिघला कर ,
जलाते हैं।