जब भी जागता हूं
जब भी जागता हूं
जब भी जागता हूँ भरम से,
जाने क्या सोचता हूँ,
किस लिए, किस किस बात पर,
मैं खुद को ही टोकता हूँ।
किसी से गिला नहीं,
हां, मगर खुद से शिकायत है
टूटा हूँ हर जगह से मैं तो क्या,
अभी बिखरा नहीं,ये उसकी इनायत है।
मैं रोया मेरे हाल पर,
किसी को खबर तक नहीं हुई।
अब मैं हँसता हूँ तो
क्यूं तकलीफ सब को हुई?
फंसता हूँ मैं हर बार,
आपने ही बुने हुए जालो में।
उम्मीदें क्यूं खत्म सी हो गई हैं,
जैसे इरादे बंद हो गये हैं तालो में।
अब मै चलूंगा तो राहो को मोड़
दूंगा मन्ज़िलों की तरफ।
अब के होगा बस चर्चा हमारा ही हर तरफ
कोई आस जाग जाये तो,
बुझे चिराग फिर से रोशन कर दूं
अपने हुनर को इतना तराशूं कि,
जर्रे ज़रे में जान भर दूं।