इश्क़
इश्क़
अपने ही क़ातिल को पनाह देकर बैठे हैं
टूटे हुए शीशे से ही हम इश्क़ कर बैठे हैं,
ये कैसी त्रिश्नगी है हमारी मोहब्ब्त की,हम
बुझे हुए चराग़ से ही रोशनी लेकर बैठे हैं,
हमारा साया ही हमसे तो रूठा हुआ सा है
फ़िर भी हम साये के साये से इश्क़ कर बैठे हैं
तेरे सताने की भी अब तो इंतहा हो गई है
हम तेरे इंतज़ार में सांसे रोक कर बैठे हैं,
अब तो रहम भी कर दे,ख़ुदा भी देख रहा है,
हम तेरी रजा केलिये खुदा से झगड़ कर बैठे हैं,
अब तो इस साखी को इश्क़ का कुछ ईनाम दे
तेरे दीदार के लिये कब्र में भी आँखे खोलकर बैठे हैं।
