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Rishabh Tomar

Others

4.6  

Rishabh Tomar

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इश्क की बाजी जीत गया

इश्क की बाजी जीत गया

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203


कहीं भरी खुशियाँ जीवन मे कहीं पे ये घट रीत गया

हँसते -रोते, गिरते -उठते ये भी साल तो बीत गया।

 

प्यार किया था इक़ लड़की से यादों में उसकी रोया

तन्हा- तन्हा रहा रात भर इक़ पल भी मैं न सोया

नहीं रहा मेरा कुछ मुझमें तन मन उसका मुझे लगा

हार स्वयं को इस तरह में इश्क़ की बाजी जीत गया

हँसते- रोते, गिरते- उठते ये भी साल तो बीत गया।


संग लेकर आया था अपने सर्दी, गर्मी और बारिश

स्वपनों को पूरा करने कुछ पंख लगाये नई ख्वाहिशें

लेकिन हौले हौले से अपना सब कुछ ये बांट गया

कहीं भरी खुशियाँ जीवन में कहीं पे ये घट रीत गया

हसंते- रोते , गिरते- उठते ये भी साल तो बीत गया।


मिटा गया कुछ पर दे के ये मुझको नये सवाल गया

आगे बस सुलझाऊं जिसको ऐसा देके जाल गया

सिसक तड़प उमंग हर्ष न जाने दे कितने लफड़े

अच्छी- बुरी यादों के संग देखो ये मन प्रीत गया 

हंसते- रोते गिरते -उठते ये भी साल तो बीत गया।


संग लेकर आया ये अपने छोटी मोटी कई उलझनें

खोजा तो पाया मैंने कि इसमें ही बसती है सुलझनें

लेकिन खोज -बीन में इसने ऐसा खेल रचाया कि

मीत नये कुछ देके मुझको, लेके कुछ मनमीत गया

हँसते- रोते ,गिरते -उठते ये भी साल तो बीत गया।


हर साल की तरह इसमें भी वो बारह मास पुराने थे

गर विजय मिली तो बड़े बोल बाकी देने को बहाने थे

इस तरह नया नहीं कुछ था न मुझमें न इस में भाई

मैं भी खुल के चीख लिया ये फिर भी ले संगीत गया

हँसते -रोते ,गिरते -उठते ये भी साल तो बीत गया।


होली,दीवाली, ईद ,दशहरा ,क्रिसमस दे के गुजर गया

कुछ मीठी, कुछ कड़वी यादे दे के देखो बिखर गया

लिखने जब बैठा मैं इसपे इतना ही लिख पाया कि

देकर कई नगमे ये मुझे, मुझसे लेकर इक़ गीत गया

हँसते- रोते, गिरते -उठते ये भी साल तो बीत गया।



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