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हवा बदल गई

हवा बदल गई

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अब वो हवा कहाँ रही

जो बहा करती थी

शीतलता लिए

जिसके मधुर स्पर्श से

न जाने कितने

मूर्छित जिए।


सघन वनों को निगल

अब उग आए 

कंक्रीट के जंगल

जहाँ बिकती है

हवा भी

आधुनिक यंत्रों के रूप में।


कैसे उम्मीद करें

इन जंगलों में

कभी मिलेगी प्राणवायु

जहाँ घुटन के सिवाय

कुछ दिखता ही नहीं।


वो क्या जानें 

हवा होती क्या है

जिसने कभी 

पाया ही नहीं

स्पर्श जीवनदायिनी का।


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