होड़
होड़
नर
देखता है
कई तने हुए दरख़्त
एक दूसरे से होड़ में
जकड़े हुए जमीं को जड़ों से
छूने को ऊंचा गहरा आसमां।
देख कर
उनकी होड़
और महत्वाकांक्षा
नीचे गुरुत्व से भरी जमीं मुस्कराती है,
उपर अनंत आसमान मुस्कराता है।
प्रकृति का खेल निराला
न पेड़ समझ पाता है
न धरती जो मुस्काती है
न आसमां जो मुस्काता है।
वो दो पाया नर
जो धरती पर विचरता है,
सोता है, हंसता, रोता है
धरती को अंबर को
कुदरत को सर नवाता है।
चीरता है
पेड़ों को
बनाता है हल
जोतता है
धरती का आंचल
यह देख अंबर का
अश्रु छलक जाता है।
लघु लगता नर
तब उगाता है नन्हे पौधे
सिर्फ एक जीवन जीने को
अंततः मिट जाता है
जो जिससे पाया लौटाता है
काठ सा हो भूमि, अंबर हो जाता है।
कई रूपों मे
यूं जीवन
सतत आता है जाता है
हर बार अभिज्ञ
धरती मुस्काती है
अंबर मुस्काता है
प्रकृति का यह खेल
निराला चलता जाता है।