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Dayasagar Dharua

Others

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Dayasagar Dharua

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हो चुका

हो चुका

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रोज व रोज आ रहा मैं भरता आहें

हस न सकुँ करलुँ जितनी कोशिशें चाहे

कुछ कदम आगे है मायूसी फैलाए बाहें


अब हो चुका

मेरी आदत ही कुछ ऐसा,


की हैं आते पसंद मुझे हर अंजानी राहें


बिन समझ दुख-सुख का अंतर

क्यों था ओढ़ा मैने ये ग़म की चादर

है लगता भटका अंधेरी गुफा कि अंदर


अब हो चुका

मेरी आदत ही कुछ ऐसा,


कि न रहा बाघ का भय, न साँप का डर


है किसी बेजान पेड़ सा हालत मेरा

जमता जहाँ है कीड़े-मकोड़ों का डेरा

है मिटा सालों से मुझ-पेड़ की बचावी-घेरा


अब हो चुका

मेरी आदत ही कुछ ऐसा,


कि नज़र अंदाज हो जाता हर घाव गहरा


दुनिया की सागर में लोग बहते भागे

मौत पे सो कि नयी जिंदगी कि साथ जागे

पर न जुड़ा मौत-जिंदगी-नैया से मेरी धागे


अब हो चुका

मेरी आदत ही कुछ ऐसी ,


कि बस नाखूनों की छोड़ता उस नाव पे दागें


है मरोड़ गया तैरते तैरते सारा बदन

थकि कंधो से न सम्हलता मेरा ये बजन

डुबते डुबते शेष हो चुका सिसकी का पवन


अब हो चुका

मेरी आदत ही कुछ ऐसा,


कि प्रेतों सा हक जमाए बैठा हूँ न छोड़े ये तन


इसी आदत को छोड़ना चाहता हूँ

जो हो रहा है, उसे बदलना चाहता हूँ

पुरानी जिंदगी वापस जीना चाह रहा हूँ


पर हो चुका

मेरी आदत ही कुछ ऐसा,


कि खुद को जोड़ने कि बदले तोड़ रहा हूँ।


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