गज़ल
गज़ल
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रूबरू तो हिमायतें होंगी ।
पीठ पीछे अदावतें होंगी ।
जैसी इंसाफ़ की है आबो हवा ।
वैसी ही तो अदालतें होंगी ।
जब मवाली ही शहरयार हुए ।
सोचिए क्या निज़ामतें होंगी ।
ख़ुद से गर जो मुख़ालफ़त की तो ।
चार सू सिर्फ़ ज़ुल्मतें होंगी ।
शब गुज़ारी है उसके पहलू में ।
शब पे शीरीं हरारतें होंगी ।
मेरे छूने से उसके होठों पर ।
ख़ूबसूरत सी रंगते होंगी ।