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Divisha Agrawal Mittal

Others

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Divisha Agrawal Mittal

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गुल्लक

गुल्लक

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बचपन की चवन्नियों से भरा

गुल्लक आज याद आता है,

भरकर, टूटकर, खुशियों की

गिनती कराया करता था,

एक रुपया, एक घंटे

साइकिल की सवारी कराता था,

गर्मी की भरी दोपहरी में अठन्नी की

क़ुल्फ़ी में भी मज़ा आया करता था,

दो रुपया में आठ चम्पक,

कुछ गुदगुदाती, कुछ पाठ पढ़ाया करती थी,

चाहते ख़त्म हो जाती थी फिर भी

मुट्ठी में कुछ चवन्नी बच जाती थी।


समय बदला, अब बैंक खातों में

जमा पूंजी इकट्ठा करते हैं,

अनंत है ये कभी भरते नहीं,

भरकर कभी टूटते नहीं,

इसलिए खुशियों की नहीं

अब नोटों की गिनती किया करते हैं,

थोड़ा और, बस थोड़ा और,

इसी जद्दोजहद में जिया करते हैं,

चाहते अब ख़त्म होती नहीं,

चवन्नियों की अब कोई बिसात नहीं,

जीवन के इस अफ़रातफ़री में अब

बचपन के गुल्लक की कोई औक़ात नहीं।


रुक, ठहर, थम जा ज़रा,

ज़िंदगी धीमे से पुकारती है,

पर दूसरों से होड़ में,

नोटों के शोरगुल में,

आवाज़ उसकी गुम जाती है,

अंत नज़दीक है,

पर फिर भी बैंक खाता भरा नहीं है,

और ज़िंदगी के पास बुक भी

ख़ाली पन्नों से भरी हुई है। 


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