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Divisha Agrawal Mittal

Others

5.0  

Divisha Agrawal Mittal

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गुजरते लम्हें

गुजरते लम्हें

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गुजरते हुए इन लम्हों को किस तरह संभाल लूँ,

सोचता हूँ कि अपने कुर्ते के किसी खिसे में छुपा लूँ,

या कुछ पलों की चुप्पियों को किताबों में समेट लूँ,

कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें रंग देकर तस्वीरों में उतार दूँ।


कुछ भूले बिसरे पल भी हैं जिन्हें आज संजो लूँ,

छिपे हुए कुछ किसी पुराने ख़त की लकीरों में है,

तो कुछ लम्हें किसी गाने की तरन्नुम में हैं, 

थोड़े बहुत तो सूखे हुए इस गुलाब की पंखुड़ियों में भी है।


बाँध के रखना चाहता हूँ इन्ही सब पलों को,

पर वक़्त मियाँ है कि ठहरता ही नहीं।

तब्दील सा हो जाता है बस यादों में,

और बस जाता है मन के किसी कोने में कहीं।


कहते हैं की गुज़रा हुआ पल वापस लौटता नहीं,

दोस्तों की महफ़िल के ठहाकों को फिर किसी ने समझा नहीं,

कुछ पल हमारी यादों के पिटारे से महकते हुए निकलते हैं,

तो कुछ यारों के क़िस्से कहानियों की चाबी से खुलते हैं।


बस यही तो है इन पलों को संजोने का तरीक़ा,

खिसे, किताबें, तस्वीरें कहाँ इन्हें संभाल पाते हैं,

ये तो बस यारों के याराना में, 

और मोहब्बत के अफ़सानों में पाए जाते हैं।















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