ग़ज़ल
ग़ज़ल
दुखों का बोझ अज़ाबों का सिलसिला देखा
ग़मों के दौर में हर शख्स को जुदा देखा
वफा शनास थे यारों के यार थे हम भी
पड़ा जो वक़्त तो यारों को भी ख़फा देखा
हूए थे बन्द दरीचे वफा ओ उल्फत जब
रज़ा ए रब से कोई और दर खुला देखा
मै चीखता ही रहा प्यास को लिए हर दम
जो तिश्नगी को सरे आम हांफता देखा
मै नर्म शाख़ था मेरी बिसात ही क्या थी
हवा के ज़ोर से हर पेड़ टूटता देखा
किसे बताएँ कि क्या क्या गुज़र गई मुझपे
न देखना था कभी उसका आसरा देखा
हुई है जब भी ज़रूरत मुझे सहारे की
तो ख़ुद के साथ सदा मैने फिर ख़ुदा देखा
बिछड़ गया जो सरे राह में यूँ ही काशिफ
तमाम उम्र उसी का ही रास्ता देखा।
