घनघोर गगन
घनघोर गगन
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बन घनघोर गगन,
बरसा घन-घन।
शीत वात लिये रुप प्रचन्ड़,
कंपित कर जाती,
यह तृप्त सा मन।
बन घनप्रिया,
कभी सौदामनी बन।
बरसे यह घन,
बरसे घन-घन।
करती वसुन्धरा, मंगलस्नान,
वारि बूँद, करते ननाद।
खुशबू बिखेरती, चँहु दिशा,
अरु वात करे कंपित
तृष्ण सा मन।
बन घनघोर गगन,
बरसा घन-घन।
तरु पर्णों पर गुंजित बूंदें,
व्योम दरक भी आँखें मूंदे,
मरु, धरा संग खेले कुछ यूँ,
याद दिलाये, मृद बचपन।
बन घनघोर गगन,
बरसा घन-घन।