ग़ज़ल
ग़ज़ल
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फिर वही ख़्वाब मुझे याद दिलाने आई
उफ़ ये बारिश मेरे ज़ख्मों को हँसाने आई
दर्द तन्हाई में करता था शिकायत कितनी
लब सिले बैठा है बारिश जो मनाने आई
हम समंदर को सुनाते थे महकती बातें
बात बारिश हमें फिर वो ही बताने आई
लम्हे कुछ सील गए थे जो रखे थे छत पे
धूप को करके परे बदरी भिगोने आई
साल भर अब्र को आँखों से पिलाया हमने
कर्ज़ बारिश वही अब मेरा चुकाने आई
बीत जाए न कहीं सावन बंजर फिर से
कौल फिर अपना 'मेघा' खुद से निभाने आई