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रिपुदमन झा "पिनाकी"

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रिपुदमन झा "पिनाकी"

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गांव की रसोई

गांव की रसोई

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याद आ गया फिर मुझे

वो गांव अपना,

कच्ची मिट्टी के वो घर

जिन पर लगी फूस खपरैल की छत

घरों से घिरा छोटा सा आंगन

आंगन में मिट्टी का चूल्हा

चूल्हे में लकड़ी का जलावन

कालिख से बचाने के लिए

बर्तन की पेंदी पर मिट्टी का लेप लगाना

कभी तेज़ कभी धीमी होती आंच

घर आंगन धुंए से भर जाता

खाना पकाती अम्मा

हथेलियों की थाप पर नर्म आटे की लोई का

लहराना और बल खाना

धीमी तेज़ आंच पर पकती सौंधी सौंधी रोटियां

गोल मटोल कुछ पकी कुछ सिंकते हुए जली

और साथ ही बनती है

खट्टी-मीठी ज़ायकेदार बातों की रसोई,

भुनी हुई अरहर की दाल

जिसमें गाय के शुद्ध घी का छौंका

चने और सरसों के साग

आग में पका आलू का चोखा

और कच्चे टमाटर की तीखी चटनी

स्वाद घुल जाता है मुंह में,

मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन

सिलबट्टे की धुन पर मसालों की वो महक

घड़े में भरा कुंए का ठंडा मीठा पानी

जिसे पीकर तृप्त हो जाती है आत्मा

जो स्वाद और आनंद गांव की रसोई में है

शहर की रसोई में वो स्वाद कहां है।



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