"दरवाजे़- खिड़कियाँ "
"दरवाजे़- खिड़कियाँ "
दरवाज़े-खिड़कियाँ कब खुलें,
ये हवा नहीं, समझ बताती है,
हर समय और हर दस्तक पे खोलना,
अक़्ल की बात नहीं होती है।
अगर ज़रूरी हो खोलना,
तो ख़ुद को सलीके से रखना भी ज़रूरी है,
अगर बिखरे हो, तो पहले ख़ुद को समेटना भी ज़रूरी है।
हर आँख में शर्म हो, ये ज़रूरी नहीं है,
हर एक का इरादा नेक हो, ये ज़रूरी नहीं है।
माना कि आज़ादी भी ज़रूरी है,
पर बेपरवाह होकर, लापरवाह होना भी ज़रूरी नहीं है।
आज़ादी के नाम पर निजता को ताक पर ,
रखना ज़रूरी नहीं है,
दरवाज़े- खिड़कियाँ हर समय और हर दस्तक पर खोलना ज़रूरी नहीं है।
-हेमंत "हेमू'
