धारा , रंग, मैं
धारा , रंग, मैं
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१। ...धारा
भागती- भागती हुई ..
काटती, बिखरती हुई
एक ही नाद और चाह के साथ
बेखौफ और बेझिझक
उनसे मिलने चल पड़ी है जो.. ॥
२। ..रंग
भेद-भाव से बेखबर
अपने ही रंग में रंगने को तत्पर
तन मन को छू जाए
जैसे हर तरफ उसी का मंजर।
३। ..मैं
धारा जैसी बहचली उनसे मिलने
तरसती , चिल्लाती, छीलती !
पल पल जागती , टूट के बिखरती ,
अपनी धुन से मगन,
मिलन को तरसती हुई मैं उन्ही के जोगन ॥
रंग की धारा लिए , रंग लूं उन्हें
समा जाऊँ उनसे ..
श्याम रंग बनके , श्याम अंग से ॥