दास्तान-ए-परिवार
दास्तान-ए-परिवार
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क्या कहें हम अपनी क़िस्मत को
दिल तो गाता है हर क्षण
मगर नसीब सोती मिली।
साथ भी परिवार का,
है कुछ अजीबो-गरीब
चाहिए उनको पैसा कि
हम लिखनें में मशगूल
डिगरी तो पहले की थी
अपनी बेरोजगारी की
समय ने दे दी उपाधि हमें
फ़ालतू के हमेशा 'सिर खपाने की'
कभी-कभी तो
चिढ़ सी हो जाती इतना
सोचता हूँ मैं
लिख डालूँ आज कितना..
कवि-हृदय हूँ मगर
परिवार से बंधकर
समय निकाल ही लेता हूँ,
दिल की तसल्ली के लिए..!