छोर और तुम
छोर और तुम
एक छोर पर बैठा मैं हाथ में , अपनी गज़ल ए किताब लिए
साथ लहरें नदी की, बिल्कुल शांत ,मेरे मन के ख्याल जैसे।
सवाल ये , क्या लिखूं मैं ऐसा जो पसंद उसको आ जाए।
दूर दूर देख सोचता मैं, फिर सोचता क्या पता उसको ये रति न भाए।
उसका मात्र ख़्याल ही ,मुझे अंदर से प्यार के एहसास से भर देता है
वो मुझ जैसे बेघर को ,न जाने क्यों ख़ुद में रहने के लिए घर देता है।
भले ही ये सब एक तरफा हो, तो भी मुझे इससे कोई एतराज़ नहीं
तुम बताओ हरि , क्या मेरे सवालों का तुम्हारे पास सच में कोई जवाब नहीं?
वाकिफ हूं मैं इससे, कि ऐसा तो कुछ हुआ नहीं होगा कि मेरी प्रीत को तुम्हारे दिल ने कभी छुआ नहीं होगा ।
तुम जानते हो , मुझे इंतजार है आज भी तुम्हारा 
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उम्मीद है मुझे , कि तुम्हारा ज़हन भी ये बात नहीं भुला होगा ।
मैं ये सोच ही रहा था कि मेरे ख्याल को हवा अपने साथ उड़ा ले गई
मैं जागा खुली आंखों की नींद से , देखा तो नदी की लहर अपने संग मेरी किताब बहा ले गई।
फिर क्या , भागा मैं भी पीछे उसके , जब तक वो फंसी नहीं किसी लकड़ी के टुकड़े में , मगर जिस समय तक मुझे वो मिली
तब तक तो मेरी बेचैनी मेरी ज़िंदगी खा ले गई।
किताब के गीले पन्नों को रोते हुए झाड़ता मैं
मानो उसमें शब्द न बल्कि मेरे जज़्बात हो , जिसे नदी का नीर अपने साथ बहाए ले गई थी ।
कांपते हाथों से छोर पर बैठा घुटनों के बल दुखी मैं
और शेष मेरे पास मैं भी नहीं।
Its you....