बुढ़ापा
बुढ़ापा
चलते थे जो मीलों पांव लाठी बनी सहारा,
सोचा था इस बुढ़ापे में ये बेटा होगा हमारा,
टूटा चश्मा सफेद दाढ़ी, कांप रहे ये हाथ,
अपने ही घर में अपनों ने छोड़ दिया अब साथ।
बेटा बोला पापा अब बड़बोले हो गए हो,
हमसे ना संभलते अब आप बूढ़े हो गए हो,
बच्चों की बातें भी ना देती तुमको सुनाई,
अब अंधे के साथ आप बेहरे हो गए हो.
ये बोल तब बेटे ने लगाया फोन,
सामने से बोला बेटा बोल रहा है कौन?
बेटा बोला ,मेरे पापा उमर जी चुके हैं,
वृद्धाश्रम में जाने लायक वृद्ध वो हो चुके हैं,
इतना सुनते ही आसूं आंखों से यूं छलक पड़े,
जिसने बचपन में चुप कराया वो खुद ही यूं फफक पड़े,
अपने ही बेटे से पराया होते देख, वो अपनी खुदगर्ज़ी से ही सिहर पड़े,
खूब रोए गिड़गिड़ाए वो सामने सपूत,
भूल गए थे पैदा किया था एक कपूत.
चंद जोड़ी कपड़ों का गठर पीठ पे लदा था,
ना सोना ना चांदी खो दिया हर एक सूत,
कार में बैठा बेटा बोला अंदर छोड़ कर आऊं क्या?
कैसे होता है रहना अब ये भी में सिखलाऊं क्या?
पसीजा मन लिए चल दिए लंगड़ाते पांव
टीस रह गई कुरेद दिए बेटे ने बुढ़ापे के घाव.
ये होता है आज के आज़ाद हिंदुस्तान में
अब बाप ही बेटे के घर में एक मेहमान है,
बंद करके कमरे में जब अपने बाप को वो छोड़ देता,
कटवाता चूहों से और कहता ये भगवान है.
बचपन में जिसने तुझे चलना था सिखलाया बेटा,
अपना निवाला छोड़ खाना तुझे खिलाया बेटा,
उसकी आंखों में खून रुला कर क्या कमाया?
नज़रों में खुद की खुद को ही गिराया बेटा,
अब भी संभल जाओ खुद को ये समझाओ तुम,
ज़िंदा है गर मन तेरा तो खुद को ये बतलाओ तुम,
हर घर है खोखला गर मां बाप की ना इज्ज़त हो,
बेटा तुम्हारी भी है वो इज्ज़त पहले खुद तो कमाओ तुम।