बसंत ऋतु
बसंत ऋतु
हाँ, मैं अपने आप के लिये जीती हूँ,
आज से कल से बेहतर बनाना जानती हूँ।
हाँ मैं अब अपने आप के लिये जीती हूँ
पतझड़ के मौसम को बसंत बहार बनाती हूँ।
हाँ मैं आज में जीती हूँ कल को भूलती हूँ
ज़िंदगी के हर रंग को ख़ुशरंग बनाती हूँ।
हाँ, मैं अपने आप के लिए जीती हूँ
भूख के भूख का निवाला बनती हूँ ।
वक़्त से छले गये लोगों की प्यास बुझाती हूँ
दिलों के ज़ख्मों को मलहम लगा जानती हूँ ।
राहत की सांस बन जाती हूँ
ग़मों को भुलाना जानती हूँ ।
खोये हुए दिलों की रजों गम की स्याही को भूला ,
दिल के कोरे काग़ज़ पर
रंग भर गीत ग़ज़ल बन जाती हूँ ।
बीते हुए मंज़र को भूला नये ख़्वाब सजाती हूँ
ख़ुशियों से हर दिलों का आस बन जाती हूँ ।
एक नया पैग़ाम दे कल को सजा जाती हूँ
शिकवे शिकायतों हसरतों की दुनिया सर झटक जीना सीखा जाती हूँ ।
बंद दीवारों खिड़कियों की झिरियों से झाँक
पुर्ज़े में ख़ुशियों का पैग़ाम दे जाती हूँ ।
दिन के उजाले रोशनी दिखा जाती हैं
रात के अंधेरो में रोशनी का पता बता ज़ाती हूँ ।
बचपन की यादों में डूब बच्चों में अपना बचपना जीती हूँ ।
जवानी की ख़ूबसूरत यादों को
पतंग की डोर बसन्ती हवाओं में उड़ा जाती हूँ ।
प्रौढों के मन की मुरादें पूरी कर ,नवयुग का प्रणेता बना जाती हूँ
बुज़ुर्गों को अपनी बची ज़िंदगी की ख़ुशियाँ ढूँढने का राज बता जाती हूँ ।
यादों के कनस्तर में रखी तस्वीरों दीवारों को ढहा
हाँ ,मै आज से कल को बेहतर बनाना जाती हूँ
मिट्टी में एक नया बीज फिर से रोपित कर
एक नये तस्वीर रूप रंग में आना चाहती हूँ ।
फिर से पतझड़ में बहार लाना चाहती हूँ
चाँद पर घर बसाना चाहती हूँ
ममता के उदगारों से दिलों में रहना चाहती हूँ ।
चाँद में घर बसाना चाहते हैं ।
हाँ, फिर से इस धरती को स्वर्ग बनाना चाहती हूँ ।
