बड़े बुजुर्ग
बड़े बुजुर्ग
सूने पड़े हैं कण्ठ सुरीले,
स्वप्निल अखियाँ रीत गई।
मन में भावों का अकाल है,
बुद्धि तन से बीत गई।
एक अकेला जाऊँगा कल,
कह कर तुम निकले थे,
वचन भंग वह हुआ तुम्हारा,
देकर जो तुम निकले थे।
वैसे भी मेरे हक़ का,
हर ज्ञान सौंपना भूले हो ।
जिनसे मुझको बढ़ना आगे,
वो समझ सौंपना भूले हो ।
अपने अनुभव प्रेम वो अपना,
जो केवल मेरी थाती है,
बिन सौंपे जाते हो कहाँ पर,
अभी तो सौदा बाकी है ।
शायद मुझसे भूल हुई हो,
आशा जो मुझसे करते थे,
शायद वो भी धूल हुई हो,
क्रोध की शायद मूल हुई हो,
फिर भी तुम हक़ न रखते हो,
अकस्मात यूँ जाने का,
हक़ मेरा तो शाश्वत है ही,
तुम से सब कुछ पाने का ।
लौट आओ शागिर्द तुम्हारा,
अब तो हारा जाता है,
शत्रु नहीं कोई आवश्यक,
अपनों से मारा जाता है ।
नहीं यदि तुम लौटोगे तो,
कहो तात फिर क्या होगा,
उजड़ा वह जो नीड़ तुम्हारा,
अंतिम मार्ग मेरा होगा ।
जितना जो भी तुमसे पाया,
एकत्र सभी कुछ कर लूँगा,
जीवन का हर दांव आखिरी,
मान के खेला मैं तो खेलूँगा ।
