बादल
बादल
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ये काल से विक्रांत से,काले घिरे आकाश में,
एक स्याह छाया सी बनाते,रवि के निर्मल प्रकाश में,
हैं अकिंचित,डर न भय है,दिख रही नूतन लहर है,
सत्य ही बदलाव की, इनके विकट हुंकार में।
समय की पुकार से,धरा के उद्धार को,
आ खड़े हों जैसे दुदुंभी की पुकार से।
रात भर चमकती रही ज्वाला चित्कार की,
जैसे हों प्रतीक्षित नव क्रांति के शुरुआत को।
चाँद,तारे दूर भागे, हिरण की सी चाल से,
आ डटी स्वर्णिम प्रभा,प्रातः नभ संसार में।
आ मिले रवि,वायु औ' जलद सभी,
क्रांति के माहौल में,मिलन के इस प्रलाप में,
इक बूँद आ गिरी धरा में,एक नए बदलाव की,
खोल बाहें सुमन ने,बूंद का स्वागत किया,
एक नए अंदाज में।।
