अपने गाँव में
अपने गाँव में
अपने गाँव में ,
मैं बैठ बरगद की छाँव में ,
शहरों को थी कोस रही ,
जहाँ ज़िन्दगी अब कम हो रही।
जहाँ प्रदूषण की मार से ,
लोग पलायन करने लगे ,
बीमारियों के डर से ,
मन ही मन अब डरने लगे।
जहाँ कटते पेड़ अपना हक़ माँगें ,
अपनी छाँव देने के भी पैसे माँगें ,
सब कुछ शहरों में अब बिकने लगा ,
इंसान का दिल पत्थर सा होने लगा।
पेड़ों में भी साँस है चलती ,
उनके बिन सूनी ये धरती ,
गर ये कट गए धीरे - धीरे सारे ,
तो इंसान भी नहीं बचेंगे प्यारे।
आम , नीम , पीपल और बरगद ,
देते सबको छाँव भर - भर कर ,
जब शहर बने इनके हत्यारे ,
तो गाँवों में ही ये अपना डेरा डालें।
