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Praveen Gola

Others

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Praveen Gola

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अपने गाँव में

अपने गाँव में

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अपने गाँव में ,

मैं बैठ बरगद की छाँव में ,

शहरों को थी कोस रही ,

जहाँ ज़िन्दगी अब कम हो रही।


जहाँ प्रदूषण की मार से ,

लोग पलायन करने लगे ,

बीमारियों के डर से ,

मन ही मन अब डरने लगे।


जहाँ कटते पेड़ अपना हक़ माँगें ,

अपनी छाँव देने के भी पैसे माँगें ,

सब कुछ शहरों में अब बिकने लगा ,

इंसान का दिल पत्थर सा होने लगा।


पेड़ों में भी साँस है चलती ,

उनके बिन सूनी ये धरती ,

गर ये कट गए धीरे - धीरे सारे ,

तो इंसान भी नहीं बचेंगे प्यारे।


आम , नीम , पीपल और बरगद ,

देते सबको छाँव भर - भर कर ,

जब शहर बने इनके हत्यारे ,

तो गाँवों में ही ये अपना डेरा डालें।



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