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अंतर-मन

अंतर-मन

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आज हृदय संकल्पबद्ध है

नक्षत्र के परिधि से उन्मुक्त होना है

सूर्यसम सर्वव्यापी हो जाऐं हम

ये निश्चित धर्य दृढ़ है।

 

ना भयभीत है होना हमें

सीमाओं से है दूर खड़े

जीवन -मृत्यु की कोलाहल से

 उर्ध्वमुखी हम हो चले।

 

जीवित रहना भी

दोष कहलाऐ इस वृत्त में

हाहाकार सी मची है तन में

अंगारों की ये ढेर

चीरते इस खोखली समंदर को

एक दिन महासागर में

लुप्त होना है।

 

सिद्धांतों की उमड़ते

 इस तरंग को

संवेदनशील भावनाओं को

 कहीं दूर किसी गैलेक्सी में

सुरक्षित स्थापित होना है

एक नवजीवन की खोज में

नभ से उर्ध्व उड़ान भरना है

 

 

विलुप्त कई सारे रेखाऐं

 हथेली और माथे की

जगमगा जाऐ

किसी शीतल स्पर्श से

ये साधना रहे जारी

दूर , मोहग्रस्त संसार से।

 

हम दुष्कर पथ पर

उलझे उचाटित मन लिये

क्यूँ  दौड़ रहे हैं

मृगतृष्णा की ओर –

वह ओझल है अर्ध-सत्य है

जो हो कर भी हवा -तरंग है।

 

हम सो कर जाग उठे

नित्य रवि -किरण समान

अब नियमों की बंधनों से

मुक्त -अभिलाषा पूर्ण होना है ।

 

आँधी सम उठते मौज

सिने तले ,ज्वलनशील है

इससे बर्फ़ की सरोवर मिले

जो भ्रांति है जीवन की

उससे दिव्यता मिले

परिपूर्णता से अलंकृत करे ।


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