अंजान हूँ में...
अंजान हूँ में...
अंजान हूँ में अपनी ही चंद ख्वाँईशोसे अब तक
हाँ चाहत है प्यार की परवाह भी है..
मगर इस के बदले गवाना अपनी सोच को..
अपने वजूद को मंजूर नही ..
अंजान हूँ के जरूरत मेरी है साथ तेरा
तेरी हि शर्तोपर क्या ?
या तेरा साथ मंजूर है, खोकर अपना
अस्तित्व कुछ अलग सा..
अंजान हूँ के अपने दायरे क्या है ?
है नासमझ बन देहलिजों में गुमनाम सा जिना
या जरूरत के हिसाब से रिश्तों की
अपनी अपनी अपने दायरों की लकिरों को चुनना
हूँ अंजान के सच्चे प्यार में क्या मिटजाना ही प्यार है?
क्या वाकई अंधा होकर प्यार में जिना ही
प्यार निभाने की शर्त है पेहली - और आखरी भी..