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BINAL PATEL

Others

4.1  

BINAL PATEL

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अंधविश्वास

अंधविश्वास

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 'जब पहेली बार आंख खोली तो माँ-पापा को देखा था,

 कानो में पहेली गूंज राधा-किशन की ही सुनी थी,

 चलते-चलते खड़ा होकर शरारत करता तो सब कनैया कहते थे,

 ईश्वर के प्रति बचपन से ही विश्वास का दीपक जला था,

 जीवन का हर संघर्ष उसकी कृपा और आशीष से लड़ता था,

 कोई है जो मेरे साथ है, इस विश्वास पे ही में चलता था,

 एक दिन अजीब ही हो गया, 

 कहानी ने एक नया ही मोड़ ले लिया, कठिनाईओ के बदल थे,

 जमकर हमपर बरस रहे थे, विश्वास के छाते में 'अंधविश्वास' के छेद लगने लगे थे,

 जब धैर्य साथ छोड़ने लगा तो में अंधश्रद्धा के दरवाज़े पर जाकर दस्तक देने लगा था,

 साम-दाम-दंड-भेद सब कर के भी बात न बनी,

फिर से ईश्वर के दरबार में जाने लगा था, एक दिन फिर वक़्त बदला था,

 मंदिर के कोने में बैठा सोच ही रहा था, ईश्वर ने आकर खुद ही पूछा था, 

 समाधान मिला या सीख? 

 जैसे एकदम से सपने से जगा में, आज फिर बंध अक्कल पे से धूल हटी थी,

 गीता का सार जैसे समझने लगा था, कर्मो पे ही विश्वास में फिर से करने लगा था,

 इस जीव के कण-कण में उस शक्ति का एहसास फिर से होने लगा था,

 तकलीफ में भी आज चहेरे पर सुकून था, मेरी भुजाओ में एक अलग ही जूनून था,

 जीवन के हर संघर्ष के लिए मैं अब तैयार था, 

 कृष्ण जिसका सारथि था, वो अर्जुन ही मेरे अंदर था । '

 


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