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Anjneet Nijjar

Others

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Anjneet Nijjar

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आख़िरी बेंच

आख़िरी बेंच

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वह बच्चे

हाँ वही बच्चे,

जो बैठते हैं कक्षा की आख़िरी बेंच पर

जिनके हाथों की मुठ्ठियों में भरी

रहती है दुगनी आज़ादी

जो गले में बाँधे घूमते हैं

नालायक और डफ़र की तख़्ती

अक्सर वे गुम हुई तितलियों को ढूँढते हुए

ज्ञान की लालटेन में सेंध लगाना जानते हैं

यही तुम्हारी बनाई सीधी लकीर की बाँह

मरोड़ कर, चल पड़ते हैं

अपनी बनाई टेड़ी लाइन के ऊपर


क्योंकि वे केवल साँस लेने वाली

भेड़ नहीं होना चाहते

यकीन करो

तुम्हारे फिक्स नियमों को डस्टर से मिटाने के बाद

और सारी होशियारी को ताला जड़ने के उपरान्त

इन्होंने ही की थी आग की खोज

जब तुम पढ़ा रहे थे भेड़ों को कोई बौद्धिक पाठ

तो ये चुपचाप तुम्हारे

‘यहाँ अक्ल बँटती है’ वाले बैनर पर

काली स्याही पोतकर

चल पड़े थे पहिए का आविष्कार करने

एक सभ्य लाइन में खड़े होकर


जब तुम कर रहे थे पेड़ों को नंगा वस्त्र की चाह में

सु – नागरिक शास्त्र के पर्चे बाँटते हुए

तब यही आख़िरी बेंच वाले तुम्हारे खिलाफ़ जाकर

कपास के बीज बो रहे थे

तमीज़दार होने की बहस दरअसल

अपने भीतर के जानवर को छिपाने की ज्ञानी कला है

इसी ज्ञानी कला से अनजान कुछ आख़िरी बेंचधारी

ख़ुद से खींची लाइन पर चलते-चलते

जुगनुओं के घर जा बैठे

वे जंगलों के साथ करने लगे कविताई

यकीन मानो

ये ही इतिहास के पहले कवि थे।


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