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kirti desai

Others

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kirti desai

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आहत

आहत

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पतझड़ की दोपहर में बड़ा हुआ है वो शजर,

अब सावन की हरियाली की अभिलाषा भी कैसे हो।


वीरानों में झोंखो से ईंट-ईंट टुटके हुआ है झर्झर,

अब आंधियो में सलामत छत की उम्मीद भी कैसे हो।


पत्ता-पत्ता करके गिरी है गहराई में खुद की नजर,

अब तुम भी जा चुकी, वो हसीन नज़ारा कैसे हो।


इंतक़ाम की ताक में खड़ा है हर एक मंज़र,

अचल, अटल, बेफिक्र खड़ा है, चट्टान जैसे हो।


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