आहिस्ता आहिस्ता...
आहिस्ता आहिस्ता...
आहिस्ता आहिस्ता दिल में,
दस्तक दी यादों ने तुम्हारी,
हसी लबों पे बिखरी,
फिर रोमरोम ने साँसे भरी...
जैसे जैसे बारीश के बुँदो की मिठास,
मिठ्ठीमें घूलती रही,
तुम्हारी लबों की खामोशियाँ,
दिल में उतरती रही...
काले बादल बाहोंमे,
रात को समेटके बैठे थे,
हम यूँ ही शिकायत करते,
राह तकते थें,
अभी आओगे तुम दौडकर,
और कहोगे,
चल, चल दुर कही इस अंधेरे में,
पर जोर का हवा का झोका आया,
ख्वाब आँखों में ही घुल गया,
अब मुस्कुराते है,
दर्द हदसें बढ गया तो,
अक्सर ये करते है,
अपने हीं आईने में,
कभी पराये दिखते है,
पहचान खुदकी खुदसे,
रोज करते है ...
धिमे धिमें पैरोसे फिर,
उसी खुर्सी पर बैठते है,
और साँसो को साँसो में भरके,
ये कहते है,
आहिस्ता आहिस्ता दिल में,
दस्तक दी यादों ने तुम्हारी,
हँसी लबों पे बिखरी,
फिर रोमरोम ने साँसे भरी...