शर्मसार
शर्मसार
क्या तकते हो?
शर्म आती है मुझे तुम्हारी गिद्ध सी नज़रों का
सामना करते क्यूँ तुम्हारी नज़रों में
साँप लौटते है एक स्त्री तन को देखकर
कोई बुत नहीं जीती जगती इंसान हूँ
कितनी सकूचाऊँ, कितनी सिमटूँ
कितना सहजू अपने तन को ?
क्या कुछ खास है मुझमें ?
जेसी तुम्हारी माँ है, बहन हाँ , बेटी है, भाभी है
बस वैसी ही तो हूँ पर हाँ शायद किसी ओर की बेटी हूँ
तो तुम समझ रहे हो अपना अधिकार यूँ
फ़टी आँखों से घूरकर नज़रों से बलात्कार करने का...
कुछ तो शर्म के दायरे में सीमित रहो
क्यूँ मेरी नज़रों में समस्त मर्द जात को गिरा रहे हो
हाँ एक तुम्हारी गिरी हुई हरकत ने हर
एक को शंशय के कटहरे में खड़ा कर दिया है
नहीं होता अब किसी सहज शरीफ़ नज़रों पर भी भरोसा...
क्यूँ एक नर्म ओर सादगी सभर लहजे से नहीं निहार सकते
कुछ अंग का ही तो फ़र्क है तुम में ओर मुझमें
वो भी कुदरत ने तुम जेसे वहसियों को
जन्म देने ओर पालने पोषने हेतु किया है
क्यूँ वसनापूर्ण द्रष्टि से इस पाक तन को गंदा करते हो
समझ सकती हूँ एक जवान बदन को तकना तुम्हारी
घटिया सोच की वहसियत की पूर्ति करता होगा
पर एक मासूम बच्ची को नोचना हद है
तुम्हारी नामर्दगी
फट नहीं जाता तुम्हारे ज़मीर का कोना कोना
किस मुँह से नज़रे मिला पाते हो
हरकत के बाद खुद ही के वजूद से
इज्जत ना दे सको ना सही बस रहम करो
नारी को नारी समझो कोई मांस का टुकड़ा नहीं।