बचपन की शरारतें
बचपन की शरारतें
मेरी उम्र करीब छः सात साल की होगी। उस वक्त टीवी मोबाइल आदि का चलन नहीं था। बचपन सचमुच बचपन हुआ करता था। मासूम भोला और बिना नुकसान वाली शरारतें। मैं बहुत ही नटखट और शरारती था।
मुझे हमेशा नई नई शरारतें सूझती रहती थी। वैसे जब मैं अकेला होता तो थोड़ा शांत भी रहता है लेकिन किसी का साथ मिलते ही मेरी शैतानियां और शरारतें कई गुना बढ़ जाती हैं। एक बार मेरी मां ने उसे राशन की दुकान से आटा लाने को कहा। मैंने मां के कहे अनुसार दो किलो आटा ला दिया। मां ने आटे को छानकर ठोंघा(कागज़ का लिफाफा)फेंक दिया। मुझे शरारत सूझी मैंने ठोंघा लिया और उसमें राख भर दी। चूंकि उस वक्त गैस और इंडक्शन का भी चलन नहीं था उस वक्त कोयले उपले पर खाने बनते थे।
ठोंघे में राख भर कर इस सफाई से पैक किया कि किसी को भी बदलाव का पता नहीं चलता। राख भरा ठोंघा लेकर दुकानदार के पास गया और बोला कि मां ने आटा वापस भिजवाया है क्योंकि आटा अच्छा नहीं है। चूंकि उसकी ही दुकान से हमेशा राशन आता था इसलिए वो मान गया और ठोंघा लेकर आटे की बोरी में वापस डालने लगा तबतक मैं वापस अपने घर आ गया।
तभी उसे कुछ संदेह हुआ और ठोंघे को गौर से देखा तो दंग रह गया। उसमें आटे की जगह राख भरी थी। दुकानदार को उस मासूम शरारत पर हँसी भी आ रही थी और प्रसन्नता भी कि राख को आटे में मिलाने से पहले उसने देख लिया। अगले दिन उसने मेरी मां से शिकायत कर दी। मेरी मासूमियत और निश्छल शरारत पर दुकानदार भी हँस - हँस कर लोटपोट हो रहा था और मेरी मां भी गुस्से के साथ साथ हँस रही थी अपने बेटे की प्यारी शरारत पर।