शहर, गाँव और चित्रकार
शहर, गाँव और चित्रकार
वह एक सिद्धहस्त चित्रकार था
उसे बनाना था चित्र
एक शहर और एक गाँव का
चित्र भी हू-ब-हू हर गली, हर मोड़
बाग़, नदी, नाले, मकान, दुकान
सब होने चाहिऐ थे ज्यों के त्यों
उसने चित्र बनाया ख़ूबसूरत चित्र
हू-ब-हू , हर गली, हर मकान
सुंदर बाग़ान , नदी, वृक्ष, स्त्री, पुरुष
पर उसका चित्र निकला अपूर्ण
उसके चित्र बनाते बनाते
शहर के पटल पर
उभर आई थींं कई गलियाँ
नालियों की पटरी पर
डेरा डाले कई लोग
ऊँची अट्टालिकाऐंं
दानवी भीड़, गंदे नाले ।
गाँव भी बदल चुका था
वह दिखाई देने लगा था उदास
वृद्धाश्रम के बूढ़ों की तरह।
उसने पुनः कोशिश की
और पुनः पुनः कोशिश की
पर नहीं बैठा सका तालमेल
तेज़ी से बदलते गाँव और शहर के स्वरूप से
और अंत में उसने डाल दी
अपनी कूँची
एक हारे हुऐ सैनिक की तरह ।
शहर वीभत्स अट्टाहास कर रहा था
और गाँव आर्तनाद