ग़ज़ल
ग़ज़ल
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चाँद तन्हा ,आसमां तन्हा बहुत है।
सुब्ह सीली, शब कोई रोया बहुत है।
मैंने जो भी चाहा, वो बख़्शा है तूने।
ज़िन्दगी मुझ पर तेरा क़र्ज़ा बहुत है ।
ज़िन्दगी है इक हुनर जिसको भी आये ।
ज़िन्दगी करने को इक लम्हा बहुत है ।
यूँ नहीं आया हुनर ये शायरी का।
वक़्त ने पहले हमें परखा बहुत है।
दो घड़ी आराम भी मुमकिन नहीं अब।
दूर है मंज़िल ,मुझे चलना बहुत है।